टूटता दम्भ , गिरता स्तर ( चुनाव २०२२ )
************************************
७वें चरण की समाप्ति के ठीक बाद आये रुझानों से इतना तो स्पष्ट हो गया है की बीजेपी में चुनाव जीतने के लिए सिर्फ मोदी , पिछड़े वर्ग की राजनीति और उनकी राष्ट्रीय नीतियां ही तारणहार बनके उभरती दिख रही हैं।
नौकरशाहों की अंधभक्ति और समर्पित कार्यकर्ताओं की घनघोर उपेक्षा से उपजा रोष ,विकास और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियों से भरे कालखंड के चुनाव को भी अनायास कांटे की टक्कर में तब्दील कर गया।
चमचों से भरे मंत्रालय के दरबारी , चाटुकार पत्रकारों से घिरे प्रमुख नेता और सचिवालय ,मौसमी लेखकों और ठेकेदारों से गुलजार होता रहा कारोबार , विगत ५ सालों के समस्त केंद्रीय विकास की योजनाओं और राष्ट्रीय भावना की प्रखरता के होते हुए भी मतदाता को मोदी लहर जैसा आकर्षण नहीं दे पा रहा था।
चिंतन का विषय यह हैकि ऐसा हुआ क्यों ? और यदि इसका १० प्रतिशत भी सच रहा है इस चुनाव में तो इसके जिम्मेदार कौन लोग हैं जो सरकार में सारे रुतबे को पाते हुए पतन की ओर ले जाने के कारक बन रहे थे ?
क्या मुसलमानों को केंद्र और राज्य की योजनाओं का करोड़ों का लाभ सीधे तौर पे नहीं मिला ? क्या यादवों को किसी नैतिक अधिकार या सुविधा से वंचित रखा गया या इन दोनों पर कोई सरकारी अवहेलना हुई ? या किसी अन्य पिछड़ी जातियों को किसी सम्मान को मिलने से रोक दिया गया ? आखिर ऐसा क्या हुआ की सब कुछ इन्ही पर केंद्रित रहते हुए भी ये संगठित रूप से सत्ता के विपरीत जाते दिखे ?
सरकार में प्रमुख पदों पर चिपके चाटुकारों को किस संघ के आदमी का कितना वजन लेना है और किस व्यक्ति के प्रभाव को कब तक लेना है इसका स्पष्ट ज्ञान ऐसा था की सचिवालय से लेकर जिलाधीश तक संकेतों को समझते थे। ये संकेत ऐसे रहे की वही परंपरागत ठेकेदार और बिचौलिए इस पार्टी के उच्च पदस्थ राजाओं के दुलारे बने रहे जो इस चुनाव के शुरुआत होते- होते और चुनाव के मध्य में कही और दुलारे बन गए। और जो अभी भी दुलारे बनके चिपके हैं वो ऐसे दीमक हैं जो अपना मकसद पूरा करके ही बाहर का रास्ता देख पायेंगें।
इन सब बातों के इतर , युवाओं की बेरुखी और ग्रामीण मतदाता का जातिगत झुकाव तथा खुद के लिए जीने वाले समाज का वही पुराना राग की मेरे लिए क्या किया सरकार ने जैसी बाते पहले जैसी ही प्रधान रहीं।
हर तरफ फैले हाई-वे और सड़कों के बेहतरीन जाल ,बिजली , सुरक्षित माहौल में व्यापार , गुंडागर्दी से निजात , राशन और गल्ले की समुचित आपूर्ति , मजदूरों को बेहतर सम्मान और समानता के अवसर , धर्म तथा सांस्कृतिक गौरव के अनेकों कीर्तिमान ,वैश्विक स्तर पर फैलती भारत की प्रतिष्ठा ,डिजिटल ट्रांसफर की क्रांति , मेड इन इंडिया की जमीनी हकीकत और व्यापक फैलती उद्यमिता ,सेना तथा सीमा सुरक्षा जैसे तमाम विषय किसी को ये बेबस न कर सके की बीजेपी ही बेहतर विकल्प है ? और एक सफल सरकार को ८० बनाम २० तक जाना पड़े ? यहाँ तक की मुख्यमंत्री को गर्मी निकालने जैसे विकल्प पर आना पड़े ? क्या मतदाता खुद गर्मी नहीं निकाल सकते थे किसी प्रत्याशी के या चुनाव लड़ रहे अपराधी के ?
इसका मतलब मतदाता भी बिचौलिए जैसा अपना स्तर खो रहा है? यही तो एक अवसर है जहां वह अपने विवेक से निर्णायक सरकार तय कर सकता है और ऐसे अवसर भी उसके लिए निजी स्वार्थ सिद्धि प्राप्ति के झूठे वादों से सने रह गए ?
कुल मिलाकर चुनाव २०२२ ने कइयों के दम्भ तोड़े हैं और ये पुनः स्पष्ट किया है की समाज घनघोर जातिगत विघटन की ओर बढ़ रहा है।
आपके ओजस्वी विचार से भारतीय लोक तंत्र में लोगो की जानकारी अवश्य बढ़ेगी।आप नए भारत के नए रत्न है।
ReplyDeleteबहुत ही सटीक मूल्यांकन
ReplyDeleteयह बहुत सुंदर लेख है और कटु सत्य वचन भी है। यही मुझे भी लगता है।
ReplyDeleteएकदम सटीक व्याख्या... पंचम तल से लेके निम्न तल तक सबकी पोल खोलता हुआ लेखन है आपका। एकदम सटीक और आइना दिखाता हुआ।
ReplyDeleteआभार आप सभी का
ReplyDelete